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पाप-पुण्य

न पाप से मुक्त हुँ मैं? न पुण्य से युक्त हुँ मैं? समय की ललकार से, जीवन के अतीत काल से, ज्वलित मन के भार से, प्रलय में नाचती काल से, अडिग खड़ा समंदर के मंझधार में, कोसकिओं में संचालित रक्त के प्रवाह में, मन को कचोटता,सवालों के बाण में, लहरों से टकराती,कगार के सिरहाने, उठता भवंडर ज्वालामुखी के मुहाने, रण-युद्ध के कौशल से छल्ली प्राण हैं, वीर के शिरा से निकलती रक्तो में शान हैं, क्या शत्रु के देह निकलती  सिर्फ प्राण हैं? चित्त को झिंझोरता,मन से करता सवाल हैं? मन में प्रलय से भयभीत मुख-कर्ण हैं, अंबक मौन लिए,मस्तक विचारों में गुमनाम हैं, मस्तक के समक्ष कई अनगिनत प्रश्न के बाण हैं, पाप-पुण्य की विश्लेषण पर न लगता विराम हैं, न पाप से मुक्त हुँ मैं? न पुण्य से युक्त हुँ मैं? -आकाश सिसोदिया
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कर्ण

ह्रदय की हर एक शिरा, अधिपति को पुकारती हैं, धरा की नमीं सम्महित हैं नीर में, नीर को ज्वलित उसकी शौर्य बनाती हैं, समंदर सा शांत मन, उसे लहरों की ललकार से जगाती हैं, जल के प्रतिम्ब में, वीर की तस्वीर को उभारती हैं, ललाट पर तेज़ शोभे, सूर्य की छवि को गौरवांवित बनाती हैं, हाथों में खड्ग लेवे,भुजा पर सारंग-बाण , अम्बर को चीरता,वीर कर्ण का बाण, शंखनाद में झूमें वीरो के अभिमान, बाणों की वर्षा में चले वीरो के तीर-कमान, खून से नहलाती ,कर्मभूमि की वो माटी, गंगा भी बहती,तीरों के सेज से उफनती, छल-पाखंड से समाहित,युद्ध की नीति, अभिमन्यु के वेवाह रोती-बिलखती, चक्रधारी भी पासा खेलते हैं, कर्ण को इंद्र के चक्रव्यूह में घेरते हैं, कुंती को दिलाते हैं सूत्रपुत्र की याद, शंखनाद से पहले चाहते हैं कर्ण का साथ, कर्ण सुन बात कुंती की मन की बात, उसका ह्रदय जवालामुखी सा भर-भराता हैं, एक नवजात शिशु को भला, जल में कौन प्रवाह कर के आता हैं, मित्रता का रखके मान,इंद्र का किया सम्मान, कवच कुंडल तन से काट कर दिया दान, कर प्रण कुंती के मान का, पाँच बेटे जीवित रहंगे पर न छोड़ता अर्जुन का प्राण, दुर्योधन ने बनाया सूत पुत्...

क्या मैं नागरिक हुँ ?

मैं मजबूर हुँ,मैं मजदूर हुँ, मैं पटरी का निवासी हुँ आज, आज में दया का पात्र भी बन गया हुँ, मेरे हक जो दया में तब्दील हो चुका हैं, जहाँ पसीना खर्च किया था , आज वहीं वजूद नहीं, आज अपना गाँव याद आ रहा हैं, जहाँ में एक मजदूर नहीं, मैं अपने नाम के साथ रह सकता हुँ, पर रास्ते कहीं गायब से हो गए हैं, गाँव दिख तो रहा हैं पर, उम्मीदों के भी पार हैं, कानून भी बदले गए उद्दोगों को देख कर, पर वो हमे देखना भूल गए, मेरे सवाल सबसे हैं? क्या मजदूर सच में समाज का अंग हैं? -आकाश सिसोदिया

अँधियारे में पड़े सवाल

सत्ता हैं नशे में चूर, परिपथ पर पसरी धूल, कर्मवीर ने थामी  डोर, सत्ता के गलियारों में शोर, जन में ही खाँचे में बांटा, तीव्रता से मन को चाटा, प्राणों का कोई मोल नही, मृत्यु का कोई शोर नहीं, कंकड़ के जज़्बात नहीं, पत्थर जैसे कोई बात नहीं, हीरों में चमक सत्ता के अनुकूल, आज कंकड़ पथ पर पसरी धूल, महल सुसज्जित सूर्य किरणों में, रवि फिर नहीं पहुँचा जुग्गियों में। -©Akash Sisodia

मजदूर,वायरस और समाज -आकाश सिसोदिया

घर की रसोई से छन-छन की आवाज़ आ रही हैं, पकवानों की लंबी लिस्ट आज तैयार हो रही हैं, देश बंद, शहर बंद, मोहल्ला भी बंद हैं, आज घर में बैठना ,खाना, फ़िल्म भी देखना हैं, पर घर में रहना भी आज हमें भारी सा लग रहा हैं, वहीं एक परिवार अपने भूखें पेट लेकर चल रहा हैं, आज वो न चाहते हुए भी मिलों पैदल सफर कर रहा हैं, पैरों की चपलें भी सड़क के गड्ढो से टूट चुकी हैं, पानी की बूंद की तालाश में उन्हें नर्क से गुजरना पड़ रहा हैं, भूखे बच्चों की पेट के लिए उसे अपना पेट खाली रखना पड़ रहा हैं, खाली रोटी भी निगलने के लिए पानी भी उनके पास नहीं, ग़रीबी उनका दुश्मन था हीं, पर आज उन्हें और डुबाने ये वायरस भी आगया हैं, सवाल ये हैं वो वायरस से बचाते हुए क्या वो भुखमरी से मर जाएँगे?? उनके पाओं के घाव भी दर्शाते हैं उनके हालात इस समय क्या हैं, उनके मलिकों द्वारा बिना वेतन के निकाल दिया जाना, जिस शहर को बनाने मे उन्होंने जीवन दिया वहाँ उनके साथ का बुरा व्यवहार, कुछ जो काम करते थे उनके घर पे जो इस वायरस से ग्रषित हैं उन्हें फ़िर भी अपने संपर्क में काम करवाना, क्या यह गलत नहीं? उनके हालात वक़्त के साथ और खराब होते जा रहे हैं,...

उल्टी दुनिया - आकाश सिसोदिया

21वी सदी और दुनिया का  बहाव बहुत अधिक तेज़ी से मुड़ गया हैं,इस इंसानी दुनिया के चश्मे पर जमीं धूल उसे अंधा बनाती गयी और वो  दिखने का नाटक करता गया पर उसे कुछ दिख नही रहा हैं।इतिहास जो खुद मनुष्यों ने लिखा हैं, वहाँ खुद उसे उपार्जन करने वाले को कोई महत्व ही नही दिया गया हैं।इंसानी जीवन आज पूरी तरह से व्यपार बन चुका हैं,जहाँ मनुष्य की कीमत नही उस से होने लाभ की कीमत हैं।पूरी दुनिया ,पूरा देश अपने ही दिखाए निर्देश को प्रथम मानकर पूरा दुनिया को छोटा। यह तो वही हो गया चींटी जो अपने मांद में रहकर अपने को सर्वश्रेष्ठ कह रही हैं परंतु वो खुद उसे भी ज्यादा शक्तिशाली के पास है क्या यह हैं एक भूल नहीं हैं? कोई धर्म जो अपने आपको परमात्मा का वंशज  मानता हैं और चाहता हैं की सब उसके परमात्मा को बिना कुछ पूछे उसे मानें,पर यह भी तो गलत हैं यदि  धर्म किसी को जबरदस्ती अपनाना पड़े, तो क्या वो धर्म इंसानियत को दबाती नही हैं? अमीर-गरीब,जाति,धर्म,व्यपार यह सब इंसानियत को दबा नही रहें, यह भी एक मुख्य सवाल है? खैर अपने ध्यान दिया होगा सारे प्रश्न इंसान से संबंधित है , इस का अर्थ यह तो नही की सि...

आँखों वाली मौत - आकाश सिसोदिया

मृत्यु देखा,मृत्यु का आतंक देखा, भय में ग्रसित जन को रोते देखा, भूख की पीड़ा को मन में खलते देखा, नयन को मौत की तलाश करते देखा आँखों में अपाहिचपन का दर्द देखा, बदन पर हाथ हैं , पर उसको भी अपंग देखा, लंबा कोस सफर तय करते देखा, आज पुनः एक बालक को मरते देखा, मानवता की खाई को समाज में बढ़ते देखा, आज की त्रासदी  में उसी खाई में उन बालकों को निगलते देखा, आज मैंने अपने ही आँखों को अपँग देखा। -आकाश सिसोदिया