ह्रदय की हर एक शिरा, अधिपति को पुकारती हैं, धरा की नमीं सम्महित हैं नीर में, नीर को ज्वलित उसकी शौर्य बनाती हैं, समंदर सा शांत मन, उसे लहरों की ललकार से जगाती हैं, जल के प्रतिम्ब में, वीर की तस्वीर को उभारती हैं, ललाट पर तेज़ शोभे, सूर्य की छवि को गौरवांवित बनाती हैं, हाथों में खड्ग लेवे,भुजा पर सारंग-बाण , अम्बर को चीरता,वीर कर्ण का बाण, शंखनाद में झूमें वीरो के अभिमान, बाणों की वर्षा में चले वीरो के तीर-कमान, खून से नहलाती ,कर्मभूमि की वो माटी, गंगा भी बहती,तीरों के सेज से उफनती, छल-पाखंड से समाहित,युद्ध की नीति, अभिमन्यु के वेवाह रोती-बिलखती, चक्रधारी भी पासा खेलते हैं, कर्ण को इंद्र के चक्रव्यूह में घेरते हैं, कुंती को दिलाते हैं सूत्रपुत्र की याद, शंखनाद से पहले चाहते हैं कर्ण का साथ, कर्ण सुन बात कुंती की मन की बात, उसका ह्रदय जवालामुखी सा भर-भराता हैं, एक नवजात शिशु को भला, जल में कौन प्रवाह कर के आता हैं, मित्रता का रखके मान,इंद्र का किया सम्मान, कवच कुंडल तन से काट कर दिया दान, कर प्रण कुंती के मान का, पाँच बेटे जीवित रहंगे पर न छोड़ता अर्जुन का प्राण, दुर्योधन ने बनाया सूत पुत्...
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