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मजदूर,वायरस और समाज -आकाश सिसोदिया

घर की रसोई से छन-छन की आवाज़ आ रही हैं,
पकवानों की लंबी लिस्ट आज तैयार हो रही हैं,
देश बंद, शहर बंद, मोहल्ला भी बंद हैं,
आज घर में बैठना ,खाना, फ़िल्म भी देखना हैं,
पर घर में रहना भी आज हमें भारी सा लग रहा हैं,
वहीं एक परिवार अपने भूखें पेट लेकर चल रहा हैं,
आज वो न चाहते हुए भी मिलों पैदल सफर कर रहा हैं,
पैरों की चपलें भी सड़क के गड्ढो से टूट चुकी हैं,
पानी की बूंद की तालाश में उन्हें नर्क से गुजरना पड़ रहा हैं,
भूखे बच्चों की पेट के लिए उसे अपना पेट खाली रखना पड़ रहा हैं,
खाली रोटी भी निगलने के लिए पानी भी उनके पास नहीं,
ग़रीबी उनका दुश्मन था हीं, पर आज उन्हें और डुबाने ये वायरस भी आगया हैं,
सवाल ये हैं वो वायरस से बचाते हुए क्या वो भुखमरी से मर जाएँगे??
उनके पाओं के घाव भी दर्शाते हैं उनके हालात इस समय क्या हैं,
उनके मलिकों द्वारा बिना वेतन के निकाल दिया जाना,
जिस शहर को बनाने मे उन्होंने जीवन दिया वहाँ उनके साथ का बुरा व्यवहार,
कुछ जो काम करते थे उनके घर पे जो इस वायरस से ग्रषित हैं उन्हें फ़िर भी अपने संपर्क में काम करवाना,
क्या यह गलत नहीं?
उनके हालात वक़्त के साथ और खराब होते जा रहे हैं,
आज समाज दो हिस्सों में बंटा हैं एक हिस्सा जो देशबंद को पारवारिक पिकनिक का भोगविलास कर रहा हैं,
एक हिस्सा जो एक एक दाने का मोहताज़ हो चुका हैं,
आज वायरस ने इतिहास को बढ़ाते हुए दुबारा उनका शोषण किया हैं,
अब हालात सही होने का इंतज़ार हैं इस बाद क्या हम एक नई सोच के साथ सबको बराबरी का हक़ और सम्मान दे सकते हैं सोचिये जरूर, मजदूरों के हित के लिए अपने घर में रहे जिससे जल्द हालात बेहतर हो और उन्हें पुनः जीवन बनाने का मौका मिले।

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न पाप से मुक्त हुँ मैं? न पुण्य से युक्त हुँ मैं? समय की ललकार से, जीवन के अतीत काल से, ज्वलित मन के भार से, प्रलय में नाचती काल से, अडिग खड़ा समंदर के मंझधार में, कोसकिओं में संचालित रक्त के प्रवाह में, मन को कचोटता,सवालों के बाण में, लहरों से टकराती,कगार के सिरहाने, उठता भवंडर ज्वालामुखी के मुहाने, रण-युद्ध के कौशल से छल्ली प्राण हैं, वीर के शिरा से निकलती रक्तो में शान हैं, क्या शत्रु के देह निकलती  सिर्फ प्राण हैं? चित्त को झिंझोरता,मन से करता सवाल हैं? मन में प्रलय से भयभीत मुख-कर्ण हैं, अंबक मौन लिए,मस्तक विचारों में गुमनाम हैं, मस्तक के समक्ष कई अनगिनत प्रश्न के बाण हैं, पाप-पुण्य की विश्लेषण पर न लगता विराम हैं, न पाप से मुक्त हुँ मैं? न पुण्य से युक्त हुँ मैं? -आकाश सिसोदिया

कर्ण

ह्रदय की हर एक शिरा, अधिपति को पुकारती हैं, धरा की नमीं सम्महित हैं नीर में, नीर को ज्वलित उसकी शौर्य बनाती हैं, समंदर सा शांत मन, उसे लहरों की ललकार से जगाती हैं, जल के प्रतिम्ब में, वीर की तस्वीर को उभारती हैं, ललाट पर तेज़ शोभे, सूर्य की छवि को गौरवांवित बनाती हैं, हाथों में खड्ग लेवे,भुजा पर सारंग-बाण , अम्बर को चीरता,वीर कर्ण का बाण, शंखनाद में झूमें वीरो के अभिमान, बाणों की वर्षा में चले वीरो के तीर-कमान, खून से नहलाती ,कर्मभूमि की वो माटी, गंगा भी बहती,तीरों के सेज से उफनती, छल-पाखंड से समाहित,युद्ध की नीति, अभिमन्यु के वेवाह रोती-बिलखती, चक्रधारी भी पासा खेलते हैं, कर्ण को इंद्र के चक्रव्यूह में घेरते हैं, कुंती को दिलाते हैं सूत्रपुत्र की याद, शंखनाद से पहले चाहते हैं कर्ण का साथ, कर्ण सुन बात कुंती की मन की बात, उसका ह्रदय जवालामुखी सा भर-भराता हैं, एक नवजात शिशु को भला, जल में कौन प्रवाह कर के आता हैं, मित्रता का रखके मान,इंद्र का किया सम्मान, कवच कुंडल तन से काट कर दिया दान, कर प्रण कुंती के मान का, पाँच बेटे जीवित रहंगे पर न छोड़ता अर्जुन का प्राण, दुर्योधन ने बनाया सूत पुत्...