मैं मजबूर हुँ,मैं मजदूर हुँ, मैं पटरी का निवासी हुँ आज, आज में दया का पात्र भी बन गया हुँ, मेरे हक जो दया में तब्दील हो चुका हैं, जहाँ पसीना खर्च किया था , आज वहीं वजूद नहीं, आज अपना गाँव याद आ रहा हैं, जहाँ में एक मजदूर नहीं, मैं अपने नाम के साथ रह सकता हुँ, पर रास्ते कहीं गायब से हो गए हैं, गाँव दिख तो रहा हैं पर, उम्मीदों के भी पार हैं, कानून भी बदले गए उद्दोगों को देख कर, पर वो हमे देखना भूल गए, मेरे सवाल सबसे हैं? क्या मजदूर सच में समाज का अंग हैं? -आकाश सिसोदिया